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बस, महात्मा ने दृढ़प्रहारी को साधुधर्म का उपदेश दिया । प्रहारी ने उसको स्वीकार किया ।
पापात्मा से पुण्यात्मा बने दृढ़प्रहारी ने तत्काल यह प्रतिज्ञा की कि 'जब तक मुझे अपना पाप याद आएगा, तब तक मैं अन्न-जल ग्रहण नहीं करूंगा ।'
बस, दृढ़प्रहारी मुनि ने ऐसा ही किया । पाप याद तो था ही, अतः प्रतिदिन नगर के बाहर अलग-अलग दिशाओं में कायोत्सर्ग ध्यान में खड़े हो जाते ।
नगरजनों ने दृढ़प्रहारी को मुनिवेष में देखा .... लोग धिक्कारने लगे - अहो ! देखो यह ढोंगी ! .... इसने मेरे पुत्र को खत्म किया है । अरे ! यह तो महादुष्ट है, इसने मेरे पिता को मार डाला था । . और लोग पत्थर लकड़ी आदि से मुनि पर प्रहार करने लगे ।
पत्थर व लकड़ी की मार यही सोचते कि ' हे आत्मन् ! तूने इसलिए ऐसा ही फल मिल रहा है। ही तो फल मिलेगा ।'
लगने पर भी दृढ़प्रहारी मुनि ऐसा ही पाप किया है, जैसा बीज बोया है, वैसा
अग्नि के ताप से स्वर्ण की शुद्धि होती है । इसी प्रकार लकड़ी आदि के प्रहार से ये मेरी आत्मा को शुद्ध ही बना रहे हैं । ये तो मेरे उपकारी हैं। अपने पुण्य का व्यय कर मेरे पाप-मल को दूर कर रहे हैं, अतः ये मेरे परम बन्धु हैं । अत्यन्त समतापूर्वक परोषहों और उपसर्गों को सहन करने से दृढ़प्रहारी मुनि को केवलज्ञान की प्राप्ति हो गई । वे सर्वज्ञसर्वदर्शी बन गए ।
इस प्रकार
शान्त सुधारस विवेचन- २८५