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हैं-(१) दूध (२) दही (३) घो (४) तैल (५) गुड़ तथा (६) पक्वान्न । इन छह में से एक दो या तीन का त्याग करना।
(5) कायक्लेश-जिस तप में इच्छापूर्वक काया को कष्ट दिया जाता है, उसे कायक्लेश कहते हैं। जैसे—केशलुचन, पादविहार इत्यादि।
(6) संलीनता-जिस तप में अंग-उपांग का संकोच किया जाता है, उसे संलीनता तप कहते हैं। जैसे-एक प्रासन पर बैठकर जाप आदि करना, श्मशान भूमि में कायोत्सर्ग करना इत्यादि ।
इस प्रकार बाह्य तप के छह भेद हैं। इन तपों का आचरण करने से आत्मा, मन व देह की शुद्धि होती है। 0 प्रायश्चित्तं वैयावृत्यम् स्वाध्यायं विनयं च । कायोत्सर्ग शुद्धध्यानम्, प्राभ्यन्तरमिदमं च ॥विभा० १२१॥
अर्थ-प्रायश्चित्त, वयावच्च, स्वाध्याय, विनय, कायोत्सर्ग और शुभध्यान, आभ्यंतर तप हैं ।। १२१ ।।
विवेचन अभ्यन्तर तप की साधना
अभ्यन्तर तप के छह भेद हैं
1. प्रायश्चित्त-मूलगुण अथवा उत्तरगुण में, महाव्रत अथवा अणुव्रत के पालन में कोई जानबूझ कर अथवा अनजाने में
शान्त सुधारस विवेचन-२६७