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5. ध्यान-ध्यान अर्थात् मन को एकाग्र करना। ध्यान के चार प्रकार हैं। इनमें दो शुभ हैं और दो अशुभ हैं ।
1. दो अशुभ ध्यान
(अ) रौद्रध्यान-अत्यन्त द्वेष से इस ध्यान की उत्पत्ति होती है. और चित्त रौद्र बन जाता है। इसके चार भेद हैं
(१) हिंसानुबन्धी-प्राणियों की हिंसा का क्रूरतम विचार करना। हिंसा के अध्यवसाय में लीन रहना।
(२) मृषानुबन्धी-झूठ बोलना तथा दूसरे को ठगने का निरन्तर विचार करना ।
(३) स्तेयानुबन्धी-चोरी के विचारों का ही निरन्तर ध्यान करना।
(४) संरक्षणानुबन्धी-धन आदि परिग्रह की रक्षा के लिए निरन्तर चिन्तन करना ।
(प्रा) प्रार्तध्यान--पीडाजन्य ध्यान प्रार्तध्यान कहलाता है। इसके चार भेद हैं
(अ) इष्ट वियोग-प्रिय स्त्री, पुत्र आदि के वियोग से शोक-ग्लानि आदि करना ।
(प्रा) अनिष्ट संयोग-प्रतिकूल व अनिष्ट वस्तुओं का सम्पर्क होने पर मन में शोक प्राक्रन्द आदि करना।
(इ) रोग चिन्ता-शरीर में रोग आदि होने पर उसके निवारण की सतत चिन्ता करना ।
शान्त सुधारस विवेचन-३०१