Book Title: Shant Sudharas Part 01
Author(s): Ratnasenvijay
Publisher: Swadhyay Sangh

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Page 316
________________ धर्मी के मनोरथ यही होते हैं कि 'हे प्रभो ! वह दिन कब भाएगा कि जब इस संसार के बन्धनों का त्याग कर मैं अरणगार बनूंगा। मेरा हृदय मैत्री - प्रमोद की भावनाओं से भावित हो जाएगा । मैं उत्तम कोटि के संयम का पालन करूंगा। मेरे हृदय में अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य आदि की प्रतिष्ठा हो जाएगी । मैं कठिन अभिग्रहों को धारण करूंगा । भयंकर उपसर्गों से भी मैं चलित नहीं बनूंगा।' इत्यादि आत्महितकर शुभ मनोरथ अवश्य ही तप के प्रभाव से पूर्ण होते हैं । तप के प्रभाव से शत्रु भी मित्र बन जाते हैं । तप की घोर साधना के फलस्वरूप महावीर परमात्मा ने अपने हृदय में मैत्री की ऐसी प्रतिष्ठा की थी कि जिसके फलस्वरूप उनके समवसरण में आजन्म वैरी पशु-पक्षी भी पास-पास में आकर प्रभु की देशना का श्रवण करते थे । सिंह व हिरण पास-पास में बैठते हुए भी हिरण के हृदय में किसी प्रकार का भय नहीं होता था । सिंहगुफावासी आदि अनेक महामुनियों ने तप धर्म की साधना के फलस्वरूप ऐसी सिद्धियाँ प्राप्त की थीं कि उनके सान्निध्य में आने वाले प्रारणी वैरभाव का सर्वथा त्याग कर देते थे । इस तप का आचरण निर्मल भाव से करना चाहिये । यही श्रागम का परम रहस्य है । निदानरहित छोटे से तप में मोक्ष प्रदान करने का सामर्थ्य रहा हुआ है । जहाँ माया, मिथ्यात्व और निदान शल्य रहा हुआ है, वह तप जिनशासन में मान्य नहीं है । वह तप तो भव-वृद्धि का ही कारण बनता है । शान्त सुधारस विवेचन- २९४

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