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उन्होंने संसार का त्याग कर चारित्र अंगीकार किया, तत्पश्चात् विविध प्रकार के तप करने लगे। तप के प्रभाव से उन्हें अनेक लब्धियों की प्राप्ति हुई। उनके मल-मूत्र भी औषधि का काम करते थे।
जब देवताओं ने वैद्य के वेष में पाकर उनकी परीक्षा लेते हुए उनसे पूछा-'भगवन् ! हम आपके रोग का उपचार करना चाहते हैं।'
महामुनि ने कहा-'कौनसे रोग का उपचार करोगे ? द्रव्य रोग या भाव रोग का? मुझे तो भाव रोगों से (प्रात्मा के रोगों से) मुक्त बनना है। क्या यह कार्य तुम कर सकोगे ? तो मैं अपना........।'
वैद्य ने कहा-"प्रभो! हम तो शरीर के रोग का इलाज करना जानते हैं। प्रात्मा के रोग....को मिटाने में हम....।'
महामुनि ने कहा- 'शरीर के रोग तो मैं भी मिटा सकता हूँ और तत्काल उन्होंने अपने मुंह से थूक निकाल कर हाथ पर लगाया। तत्काल उनके देह की चमड़ी स्वर्णवत् हो गई।'
वैद्य के रूप में आए देव पाश्चर्यचकित हो गए, 'अहो ! इतनी महान् लब्धियों के स्वामी। फिर भी इतने निर्लेप और अनासक्त हैं....।' देवता उनके चरणों में झुक गए।
यह तप तो विश्ववन्ध है। इस तप में स्वर्ग के महान् सुख और शाश्वत अजरामर पद देने की शक्ति रही हुई है।
शान्त-१६
शान्त सुधारस विवेचन-२८९