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कार्य भी एक ही होता है, फिर भी हेतुओं के भेद से उस अग्नि में भी भेदोपचार किया जाता है ।
जैसे-काष्ठ को जलाकर पैदा की गई अग्नि काष्ठाग्नि कहलाती है।
घास को जलाकर पैदा की गई अग्नि तृणाग्नि कहलाती है ।
इसी प्रकार प्रात्मा पर से कर्म के झड़ने के स्वरूप से तो निर्जरा का एक ही प्रकार है। फिर भी निर्जरा के जनक हेतुओं के भेद से निर्जरा के बारह भेद बताए गए हैं। निकाचितानामपि कर्मणां यद् ,
__ गरीयसां भूधरदुर्धराणाम् । विभेदने वज्रमिवातितीवं, नमोऽस्तु तस्मै तपसेऽद्भुताय ॥ ११३ ॥
(उपेन्द्रवज्रा) अर्थ-विशाल और दुर्धर पर्वतों को तोड़ने में वज्र अत्यन्त तेजी से काम करता है, इसी प्रकार अत्यन्त निकाचित कर्मों को तोड़ने में भी तप अत्यन्त तीव्रता से काम करता है, ऐसे अद्भुत तप को नमस्कार हो ॥ ११३ ।।
विवेचन
तप से कर्मनाश
मन, वचन और काया की वृत्ति-प्रवृत्ति के अनुसार आत्मा कर्म का बंध करती है। कर्म-बंध के साथ ही चार चीजों का निर्णय हो जाता है
शान्त सुधारस विवेचन-२७८