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2. स्थिति-कर्मबंध के साथ ही उसकी स्थिति भी तय हो जाती है, अर्थात् यह कर्म अमुक समय तक प्रात्मा के साथ लगा रहेगा । कर्म की प्रकृति के अनुसार उसकी स्थिति भी भिन्न-भिन्न है।
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय और अन्तराय की उत्कृष्ट स्थिति ३० कोटाकोटि सागरोपम है । नाम और गोत्र की २० कोटाकोटि सागरोपम, मोहनीय की ७० कोटाकोटि सागरोपम और आयुष्य की ३३ सागरोपम है।
वेदनीय की जघन्य स्थिति १२ मुहूर्त, नाम और गोत्र की ८ मुहूर्त और शेष कर्मों की अन्तर्मुहूर्त है।
इस प्रकार कर्मबंध के साथ उसकी स्थिति का निर्णय भी तत्काल हो जाता है।
3. रस-कर्म में शुभाशुभ फल देने की शक्ति का निर्णय 'रस' से होता है। कर्म के परमाणुओं में यह रस आत्मा के कषायों से उत्पन्न होता है। कषायों की तीव्रता-मन्दता के अनुसार कर्म में फल देने की शक्ति पैदा होती है।
4. प्रदेश-कर्मबंध के साथ ही उसके दलिकों की संख्या का निर्धारण भी हो जाता है ।
इस प्रकार कर्मबंध के साथ उपर्युक्त चारों का निर्धारण हो जाता है।
इन कर्मों के बंध के पुनः चार प्रकार हैं1. स्पृष्टबंध-जिस कर्म का बंध, मात्र योग से होता है,
शान्त सुधारस विवेचन-२८०