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1. प्रकृति-कर्म की मुख्य पाठ प्रकृतियाँ हैं, जो प्रात्मा के ज्ञानादि गुणों को रोकती हैं
(१) ज्ञानावरणीय कर्म- प्रात्मा के ज्ञान गुण पर प्रावरण लाता है।
(२) दर्शनावरणीय कर्म-प्रात्मा के दर्शन गुण को रोकता है।
(३) वेदनीय कर्म-आत्मा को शाता-अशाता देता है।
(४) मोहनीय कर्म-आत्मा के सम्यक्त्व व चारित्र गुण को रोकता है। - (५) आयुष्य कर्म-आत्मा की अजरामर अवस्था को रोकता है और एक भव में रहने (जीने) का समय प्रदान करता है।
(६) नाम कर्म-प्रात्मा के अरूपिता गुण पर प्रावरण लाता है और विविध देह, आकार आदि प्रदान करता है ।
(७) गोत्र कर्म-आत्मा के अगुरुलघुता गुण पर पावरण लाता है और आत्मा को ऊंच-नीच जाति में स्थान देता है।
(८) अन्तराय कर्म-प्रात्मा के अनन्त वीर्य गुरण को रोकता है और प्रात्मा की दानादि लब्धियों में अन्तराय पैदा करता है।
कर्मबंध के समय उपर्युक्त मूल प्रकृतियों में से बँधे हुए कर्म का स्वरूप क्या होगा, उसका निर्णय होता है, इसे प्रकृतिबंध भी कहते हैं।
शान्त सुधारस विवेचन-२७९