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निर्जरा इच्छापूर्वक किए गए एक 'नवकारसी' के तप से हो जाती है।
दृढ़प्रहारी, चिलातीपुत्र, अर्जुनमाली, रोहिणेय चोर आदि महापापियों का भी तप और संयम से अल्पकालीन कष्ट सहन करने से उद्धार हो गया और हमारा उद्धार नहीं हो पाया; कारण क्या है ?
क्या हमने मरणान्त कष्टों को सहन नहीं किया है ? क्या हमारे शरीर की चमड़ी नहीं उतारी गई है ? क्या हमने जीते जी आग की पीड़ा को सहन नहीं किया है ?
कष्ट, उपसर्ग और पीड़ाएँ तो बहुत सहन कीं, फिर भी हम मुक्त न हो पाए। इसका एकमात्र कारण है-'वह सब दुःख हमने अनिच्छा से सहन किया है, स्वीकार किया है, परन्तु उस दुःख से घृणा ही की है-उस दुःख में रोए हैं।' इसीलिए हम मुक्त न बन पाये। __ जैन दर्शन में निर्जरा तत्त्व के बारह भेद बतलाए गये हैं, क्योंकि तप के बारह प्रकार हैं। तप और निर्जरा का अभेद सम्बन्ध है। जहाँ तप है वहाँ निर्जरा होगी ही। तप के द्वारा उदयावलिका में अप्रविष्ट कर्मों को उदय में लाकर क्षय किया जाता है।
'आत्मा पर से कर्म का झड़ जाना' यही वस्तुतः निर्जरा का स्वरूप है और इसका प्रकार भी एक ही है, फिर भी हेतु के भेद से जैसे कार्य में भेद किया जाता है, उसी प्रकार निर्जरा के हेतुत्रों के भेद से निर्जरा के भी बारह भेद किए गए हैं।
शान्त सुधारस विवेचन-२७६