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अपनी आत्मा निरन्तर सात या आठ कर्मों का बंध कर रही है । इसके साथ प्रतिसमय आठों कर्म उदय में भी हैं।
प्रतिसमय कर्मोदय से क्षीण होने वाले कर्म अल्प संख्या में हैं और बंध अधिक संख्या में हो रहा है। इस कारण अपनी आत्मा पर कर्म का मैल अत्यधिक चढ़ा हुआ है।
कोई तालाब पानी से भरा हुआ हो, उसमें नवीन पानी के प्रागमन के द्वार बन्द कर दिए हों तो उस तालाब का पानी वैशाख और ज्येष्ठ मास की भयंकर गर्मी से भाप बनकर उड़ने लगता है और धीरे-धीरे एक दिन वह तालाब सूख जाता है ।
बस, इसी प्रकार अपनी प्रात्मा में भी प्रास्रव-मार्गों के द्वारा कर्मों का आगमन होता है। संवर द्वारा प्रास्रवों के उन द्वारों को बन्द कर दिया जाता है और निर्जरा द्वारा सत्तागत कर्मदलिकों को जलाकर खत्म कर दिया जाता है।
नदी में पाप नाव से यात्रा कर रहे हैं। अचानक नाव में कुछ छिद्र पड़ जाते हैं और नदी का पानी नाव में आने लगता है, आप सर्वप्रथम क्या करोगे?
जो जल के आगमन के छिद्र हैं, उन्हीं को बन्द करोगे न ?
उन छिद्रों को बन्द करने के साथ अथवा बाद तुरन्त नाव में आए जल को बाहर फेंकने का काम करोगे।
अब इस उदाहरण को आध्यात्मिक दृष्टि से समझ लें।
इस संसार-सागर में अपनी आत्मा नाव समान है। प्रास्रव-द्वार नाव के छिद्र हैं, जिनसे कर्म रूपी पानी आत्मा में
शान्त सुधारस विवेचन-२७४