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उन्होंने इकट्ठा कर लिया था, किन्तु वे पुन: सावधान हो गए और शुभ ध्यान के बल से उन्होंने उन कर्मदलिकों का पुनः क्षय कर दिया।
चित्त के अध्यवसायों को सुधारने के लिए संयम का पालन और शास्त्रों का स्वाध्याय-वाचन-मनन अत्यन्त अनिवार्य है। शास्त्रों के स्वाध्याय से सत्य का बोध होता है, जिससे चित्त के अध्यवसाय शुभ व शुद्ध बनते हैं।
संयम व स्वाध्याय रूप पुष्पों की सुगन्ध से अपने अध्यवसायों को सुगन्धित-पवित्र बनाया जा सकता है।
अध्यवसायों की शुद्धि के बाद अपनी आत्मा के स्वरूप को समझने का प्रयास करना चाहिये ।
ज्ञान, दर्शन और चारित्र यह आत्मा का स्वभाव है। जो सदा साथ में रहते हैं, वे गुण कहलाते हैं। ज्ञान, दर्शन आदि प्रात्मा के गुण हैं। जो क्रमभावी होते हैं, वे पर्याय कहलाते हैं। बाल्यावस्था, यौवनावस्था, वृद्धावस्था, मनुष्य, पशु इत्यादि प्रात्मा की पर्यायें हैं।
ववनमलं कुरु पावनरसनं,
जिनचरितं गायं गायम् । सविनय - शान्तसुधारसमेनं ,
चिरं नन्द पायं पायम् ॥ शृणु० १०६ ॥ अर्थ-जिनेश्वर के चरित्रों का पुनःपुनः गान करके रसना
शान्त सुधारस विवेचन-२७०