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उपशम
रोप
तप नायं ।
उपशम-रसमनुशीलय मनसा ,
रोष - दहन-जलदप्रायम् । कलय विरागं धुत-परभागं ,
हृदि विनयं नायं नायम् ॥ शृणु० १०४ ॥ अर्थ-मन से उपशमरस का अनुशीलन करो, जो प्रायः क्रोध रूप आग के लिए बादल के समान है। हृदय में बारम्बार विनय को ला-लाकर श्रेष्ठ धैर्य रूप विरक्ति के स्वरूप को समझ लो ।। १०४॥
विवेचन उपशम से क्रोध का नाश करो
क्रोध तो कषायों का राजा है । इससे सभी भयभीत होते हैं।
ज्ञानियों ने क्रोव को आग की उपमा दी है। प्राग के संग से प्रादमी जलने लगता है, इसी प्रकार क्रोध के संग से आत्मा जलने लगती है।
क्रोध की चिनगारी सर्वप्रथम मन में उठती है, फिर वारणी के द्वारा बाहर निकलती है और मुख की विकरालता के द्वारा प्रगट होती है। क्रोध जब अपना भयंकर रूप ले लेता है, तब इसे जीतना अत्यन्त कठिन हो जाता है। बड़े-बड़े महातपस्वियों को भी इसने परास्त कर दिया है और उनके तप को धूल में मिला दिया है।
ठीक ही कहा है
क्रोधे क्रोड पुरव तणु, संयम फल जाय । क्रोध सहित जे तप करे, ते तो लेखे न थाय ॥
शान्त सुधारस विवेचन-२६३