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प्रथम सूत्र में कहा है कि–'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः' अर्थात् सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान और सम्यग् चारित्र ये तीनों मिलकर एक मोक्ष का मार्ग हैं। इन तीनों में से एक की उपेक्षा करने पर मोक्ष की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है। मात्र ज्ञान और चारित्र हो, किन्तु सम्यग्दर्शन न हो तो वह ज्ञान भी मिथ्याज्ञान ही है और चारित्र भी कायकष्ट ही है, जिससे मोक्ष की प्राप्ति कदापि सम्भव नहीं है।
सम्यग् दर्शन और सम्यग् ज्ञान हो, किन्तु सम्यक् चारित्र न हो तो भी मोक्ष की प्राप्ति सम्भव नहीं है। इसीलिए तो उमास्वातिजी ने 'तत्त्वार्थ सूत्र' के प्रथम सूत्र में 'सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रारिण' पद में बहुवचन और 'मोक्षमार्गः' में एकवचन का प्रयोग किया है। इसका मुख्य कारण यही है कि सम्यग् दर्शनादि तीनों संयुक्त मिलकर ही मोक्ष का मार्ग बनते हैं, किन्तु स्वतंत्र रूप में प्रत्येक मोक्षमार्ग नहीं है। अर्थात् मोक्ष की साधना के लिए इन तीनों की संयुक्त आवश्यकता है। एक की भी उपेक्षा सहनीय नहीं है। .
आज तक अनन्त आत्माएँ रत्नत्रयी की आराधना कर परम पद को प्राप्त हुई हैं। वर्तमान में भी अनेक प्रात्माएँ रत्नत्रयी की आराधना कर मुक्ति पद को प्राप्त कर रही हैं।
यह रत्नत्रयी मुक्ति-प्राप्ति का अमोघ उपाय है। विषय - विकारमपाकुरु दूरं,
. क्रोधं मानं सह मायम् लोभ-रिपुं च विजित्य सहेलं ,
भज संयमगुरण-मकषायम् ॥ शृणु० १०३ ॥
शान्त सुधारस विवेचन-२६१