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विवेचन प्रात व रौद्रध्यान को दूर करो
ओह ! इस मन मन्दिर में आर्त और रौद्रध्यान के कचरे को इकट्ठा क्यों किया है ? क्या गन्दगी में आनन्द हो सकता है ?
हाँ, मैं भूल गया, सूअर और विष्टा के कीड़ों को गन्दगी में ही प्रानन्द प्राता है। परन्तु आप तो मानसरोवर के हंस बनना चाहते हो न? तो फिर आपको मन की इस गन्दगी को दूर करना ही होगा।
साफ करो इस गन्दगी को और फिर देखो धर्मध्यान के आनन्द और मस्ती को।
धर्मध्यान के द्वारा मन के इस अशुभ कचरे को साफ कर दो और फिर अनेक प्रकार के कुविकल्पों के जालों को जलाकर खत्म कर डालो। कुविकल्प तो शान्त मानस को प्रशान्त बना देते हैं ।
मन को अनेक प्रकार की भौतिक वासनाओं की चिन्ता से युक्त रखना यह तत्त्वज्ञानी व्यक्ति के लिए शोभास्पद नहीं है।
हे आत्मन् ! तू निरर्थक ही नाना प्रकार की चिन्ताएँ कर विकल्पों के जाल बना रहा है। उन संकल्प-विकल्पों में कोई आनन्द नहीं है। कभी आरोग्य की चिन्ता, कभी पुत्र-परिवार की चिन्ता, तो कभी धनादि की चिन्ता। इन चिन्तामों के चोगों को उतार कर फेंक दे। ___ जरा सोच ! तेरा मन कोई कचरा-पेटी नहीं है कि इसमें जैसे-तैसे गन्दे विचारों का कचरा डाल दिया जाय।
शान्त सुधारस विवेचन-२६५