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तो भी उसको दुर्गन्ध सुगन्ध में बदलती नहीं है और उसकी दुर्गन्ध प्रगट हुए बिना रहेगी नहीं।
जिस प्रकार लहसुन अपनी दुर्गन्ध का त्याग नहीं करता है, उसी प्रकार दुर्जन व्यक्ति भी कभी अपनी दुष्ट प्रकृति का त्याग नहीं करता है।
एक महात्मा नदी किनारे जा रहे थे। अचानक उन्होंने जल में गिरे हुए एक बिच्छू को देखा। महात्मा को दया पा गई, उन्होंने उस बिच्छ को अपनी हथेली में उठा लिया। किन्तु उस बिच्छू ने तत्काल ही महात्मा को हथेली में डंक मारा, जिससे हथेली हिली और वह उछलकर पुनः जल में जा गिरा।
महात्मा को दया आई, 'बेचारा! जल में मर जायेगा।' अतः पुनः उसे जल से बाहर निकाला।
किन्तु बिच्छू ने अपनी दुष्टता नहीं छोड़ी, दूसरी बार भी उसने महात्मा के हाथ में डंक मार दिया। हथेली के हिलने से वह पुनः जल में जा गिरा।
परोपकारपरायण महात्मा जब पुनः उसे बचाने की कोशिश करने लगे तब पास में खड़े एक व्यक्ति ने कहा"महात्माजी! आप व्यर्थ ही बालिश चेष्टा क्यों कर रहे हैं ? आप तो इसे बचा रहे हैं और यह........।"
महात्मा ने कहा- "भाई ! यदि यह अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता है, तो मैं अपने स्वभाव का त्याग क्यों करू ?"
कहने का सार यह है कि सज्जन व्यक्ति कितना ही
शान्त सुधारस विवेचन-१८४