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सप्तमभावनाष्टकम् परिहरणीया रे, सुकृतिभिरालवा ,
हृदि समतामवधाय । प्रभवन्त्येते रे, भृशमुच्छृङ्खला ,
विभु गुण-विभव-वधाय ॥ ८६ ॥
अर्थ-हृदय में समता को धारण कर सज्जन पुरुषों को आस्रव का त्याग कर देना चाहिये। अत्यन्त उच्छखल बने हुए ये (आस्रव) आत्मा के गुण-वैभव का घात करने में समर्थ हैं ॥ ८६ ।।
विवेचन प्रास्त्रवों का त्याग करो
जो प्रात्मा स्व-पर का हित करे, वह आत्मा सज्जन कहलाती है और जो प्रात्मा स्व-पर का अहित करे, वह दुर्जन कहलाती है। दुर्जन आत्मा सदा दूसरे का नुकसान हो, ऐसी ही प्रवृत्ति करती है। अतः दुर्जन को उपदेश देना, सर्प को दूध पिलाने के समान है। दूध पौष्टिक और लाभकारी पदार्थ है, किन्तु सर्प को दूध पिलाना तो उसकी विषवृद्धि के लिए ही
शान्त सुधारस विवेचन-२२०