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मोहित हो जाती है, परन्तु उसके परिणाम का विचार नहीं कर पाती है, जिसके फलस्वरूप प्रात्मा को अनन्त बार जन्म-मरण करना पड़ता है।
आत्मा के भव-भ्रमण का कोई मूल कारण है तो विषय और कषाय ही है। मूल के बिना वृक्ष का अस्तित्व टिक नहीं सकता, उसी प्रकार विषय-कषाय के बिना आत्मा का संसार भी टिक नहीं सकता है। मूल के कमजोर होते ही वृक्ष धराशायी बन जाता है, उसी प्रकार विषय-कषाय की वृत्ति-प्रवृत्ति क्षीण होते ही आत्मा के भव-भ्रमण का अन्त पा जाता है। इस अमूल्य मानव-जीवन के प्रत्येक पल का उपयोग विषय-कषाय के जाल को तोड़ने के लिए ही होना चाहिये।
मनसा वाचा रे, वपुषा चञ्चला ,
दुर्जय - दुरित - भरेण । उपलिप्यन्ते रे, तत प्रास्रवजये ,
यततां कृतमपरेण ॥ १४ ॥ अर्थ-मन, वचन और काया की चंचलता से प्राणी दुर्जय ऐसे पाप के भार से लिप्त हो जाता है, अत: प्रास्रव-जय के लिए प्रयत्न करो। अन्य सब प्रयत्न बेकार हैं ।। ६४ ।।
विवेचन आस्रव जय के लिए प्रयत्न करो
मानव-जीवन में अत्यन्त ही दुर्लभता से सचेतन (जागृत) मन की प्राप्ति हुई है। चतुर्गति रूप संसार में देव का वैक्रिय देह
शान्त सुधारस विवेचन-२३०