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अधिक महत्त्वपूर्ण और दुर्लभ नहीं है, किन्तु मानव के औदारिक देह की प्राप्ति अत्यन्त दुर्लभ है; क्योंकि मुक्ति की साधना का एकमात्र सामर्थ्य मानव-देह में ही है। शुक्लध्यान, क्षपकश्रेणी, केवलज्ञान इत्यादि का एकमात्र एकाधिकार मानव को ही है। देव के पास तेजस्वी रूप है, बलवती काया है, दीर्घ आयुष्य है, विशाल वैभव-सुख है। बाह्य भौतिक वैभव से देवता समृद्ध होते हुए भी उनमें मोक्ष की साधना का वह सामर्थ्य नहीं है, जो मानव के पास में है।
मानव का देह भले ही गन्दगी का ढेर है, फिर भी मोक्ष की साधना का सामर्थ्य मानव में ही है।
मोक्ष की साधना तभी हो सकती है, जब मन-वचन और काया पर अंकुश रखा जाय, किन्तु यदि इन पर किसी प्रकार का अंकुश न रखा जाय तो ये हो मन-वचन आदि मानव को ७वीं नरक-भूमि की अतल गहराई में डाल देते हैं। सर्प, सिंह अपने जीवन में भयंकर हिंसा करने के बावजूद भी तीसरे-चौथे नरक तक हो जाते हैं, किन्तु मानव बाह्य हिंसा न करते हुए भी मन में रौद्रध्यान आदि करे तो वह मरकर ७वीं नरक-भूमि में भी जा सकता है।
मानव यदि मन पर अंकुश न रखे तो यह चंचल मन मानव को अधोगति में ले जा सकता है।
मन को वश में करना अत्यन्त ही कठिन काम है। योगियों को भी मन का वशीकरण अत्यन्त कठिन है। तभी तो पूज्य प्रानन्दघनजी म. ने प्रभु से प्रार्थना करते हुए कहा है
शान्त सुधारस विवेचन-२३१