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मनडु किम ही न बाजे हो कुंथु जिन, मनडु किम ही न बाजे । जिम-जिम जतन करी ने राखु, तिम-तिम श्रलगो भाजे हो ।
कुथु जिन.
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आगे जाकर उन्होंने यही कहा है'मन साध्यु तेरणे सघलु साध्यु, एह त्रात नवि खोटी ।
इस प्रकार मन के वशीकरण की साधना अत्यन्त ही कठिन है ।
अतः दुर्लभता से प्राप्त मानव जीवन का पुरुषार्थ मन-वचन और काया के योगों के वशीकरण के लिए ही होना चाहिये ।
पूज्य उपाध्यायजी म. फरमाते हैं कि मन, वचन और काया की चंचलता से आत्मा में प्रास्रव के द्वार खुल जाते हैं और आत्मा कर्म के कीचड़ में फँस जाती है । अतः प्रयत्न करके आस्रवजय के लिए पुरुषार्थ करना चाहिये ।
शुद्धा योगा रे, यदपि यतात्मनां
स्रवन्ते शुभकर्माणि ।
काञ्चन- निगडांस्तान्यपि जानीयात्,
हत निर्वृति- शर्माणि ॥ ६५ ॥
अर्थ - यद्यपि संयमी आत्माएँ शुद्ध योगों के द्वारा शुभकर्मों का प्रस्रव करती हैं, उनको भी स्वर्ण की बेड़ियाँ समझो, क्योंकि वे भी मोक्षसुख में प्रतिबन्धक हैं ।। ६५ ।।
शान्त सुधारस विवेचन- २३२