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विवेचन
शुभ कर्म से शुभ मानव
मन-वचन और काया की शुभ प्रवृत्ति से शुभ कर्म का प्रास्रव होता है । मुक्ति की अभिलाषी आत्मा तो कर्म से मुक्त बनना चाहती है, अतः कर्म-मुक्ति के लिए कर्मों की निर्जरा आवश्यक है निर्जरा से कर्मों का क्षय होता है और कर्म-क्षय से प्रात्मा मुक्त बनती है। __शुभ कर्म के उदय से आत्मा को शुभ फल की प्राप्ति होती है। कर्म के बन्ध के बाद उसका फल उन्हें भोगना ही पड़ता है।
बेड़ी तो आखिर बेड़ी है, भले ही लोहे के बदले सोने की हो। इसी प्रकार शुभ कर्म भी आखिर तो कर्म हैं और कर्म होने के नाते आत्मा के लिए बन्धन रूप ही हैं ।
इसीलिए तो साधु भगवन्तों के लिए निर्जरा की प्रधानता है, अतः उनके लिए द्रव्यदान, द्रव्य-पूजा आदि का निषेध है।
अष्टक प्रकरण में प्राचार्य श्री हरिभद्र सूरिजी म. ने कहा है कि
दया भूतेषु वैराग्यं, विधिवद् गुरुपूजनम् । विशुद्धा शोलवृत्तिश्च, पुण्यं पुण्यानुबन्ध्यदः ॥
दुःखी प्राणियों पर अनुकम्पा, वैराग्य, विधिपूर्वक देव गुरु का पूजन, विशुद्धशीलवृत्ति आदि पुण्यानुबन्धी पुण्य को देने वाले हैं।
संयमी साधु भगवन्तों के लिए एकान्त-गोचरी (भोजन)
शान्त सुधारस विवेचन-२३३