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प्रकार क्षमा को आत्मस्वभाव मानकर दूसरे के गुस्से को सहन करना धर्म क्षमा है।
इन पाँच प्रकार की क्षमा में चौथी क्षमा श्रेष्ठ तथा पाँचवीं सर्वश्रेष्ठ है।
२. आर्जव-मन में किसी प्रकार की माया धारण नहीं करना और सरलता रखना।
३. मार्दव-किसी प्रकार का अभिमान नहीं करना और नम्र बनने का प्रयत्न करना। पुण्य के उदय से सुकुल-उत्तम जाति आदि की प्राप्ति हुई हो, फिर भी लेश भी अहंकार नहीं करना।
४. मुक्ति-मुक्ति अर्थात् लोभजय। प्राप्त वस्तुओं में सन्तोष धारण करना। अनुकूल व अप्राप्त पदार्थों को पाने की लालसा नहीं रखना।
५. तप-तप अर्थात् इच्छाओं का निरोध करना । आहार की लालसा, इन्द्रियों के भोग तथा कषाय-जय के लिए यथाशक्य बाह्य व अभ्यन्तर तप का आचरण करना ।
६. संयम-आत्म-गुणों के विकास के लिए चारित्र धर्म की आराधना करना संयम कहलाता है। इसके सत्रह भेद हैं
पाँच महाव्रतों का पालन
(1) सर्वथा प्रारणातिपात विरमण महावत-मन, वचन, काया से हिंसा करनी नहीं, दूसरों से हिंसा करवानी नहीं और हिंसा करते हुए की अनुमोदना करनी नहीं।
शान्त सुधारस विवेचन-२४३