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की प्राप्ति के लिए हो तड़फन होती है, वह प्रात्मा संसार के समस्त सुखों को दुःख रूप ही मानती है। उसे संसार के सुख में कोई रस नहीं होता है।
(३) भव निर्वेद-सम्यग्दृष्टि आत्मा को यह संसार कारावास के समान प्रतीत होता है। उसे इस संसार से तीव्र विरक्ति होती है। वह प्रात्मा इस भव-बन्धन से सदा मुक्त बनना चाहती है।
(४) अनुकम्पा-सम्यग्दृष्टि आत्मा के हृदय में दुःखी प्राणियों के प्रति अनुकम्पा होती है।
(५) आस्तिक्य-सम्यग्दृष्टि प्रात्मा के हृदय में जिनेश्वरदेव के वचन के प्रति तीव्र प्रास्था होती है। 'तमेव सच्चं निस्संकं जं जिणेहिं पवेइयं' वही सत्य और निःशंक है जो जिनेश्वरदेवों ने कहा है।
इस प्रकार सम्यग्दर्शन की साधना द्वारा मिथ्यात्व को दूर करने का प्रयास करना चाहिये।
मन में आर्त और रौद्रध्यान करने से भी अशुभ कर्मों का आस्रव होता है। प्रार्तध्यान के समय आयुष्य का बन्ध हो तो व्यक्ति मरकर तिर्यंच गति में जाता है और रौद्रध्यान से आत्मा नरकगति में जाती है।
प्रार्तध्यान के चार भेद हैं
(१) अनिष्ट वियोग-जो स्वयं को प्रिय न हो, ऐसे शब्द, रूप, रस आदि का संसर्ग हो गया हो तो उनके वियोग की सतत चिन्ता करना।
शान्त सधारस विवेचन-२५१