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संयमेन विषयाविरतत्वे ,
दर्शनेन वितथाभिनिवेशम् । ध्यानमार्तमथ रौद्रमजस्र , चेतसः स्थिरतया च निरन्ध्याः ॥ १८ ॥
__ (स्वागता) अर्थ-संयम से इन्द्रियविषयों और अविरति को, सम्यक्त्व से मिथ्या आग्रह को तथा चित्त के स्थैर्य से आर्त और रौद्रध्यान को दबा दो ।। ६८ ॥
विवेचनसंयम का पालन करो
मानव को प्राप्त इन्द्रियाँ स्वभाव से चंचल हैं और दुष्प्रवृत्ति के लिए सदा प्रयत्नशील रहती हैं, अतः उन विषयों से विरमण के लिए संयम के हथियार का उपयोग करना चाहिये।
संयम प्रर्थात् अंकुश।
जिस प्रकार चंचल हाथी को रोकने के लिए अंकुश काम में लिया जाता है, उसी प्रकार इन्द्रियों के विषय आदि से मन को रोकने के लिए विरति धर्म का प्राश्रय करना अत्यन्त आवश्यक है।
अविरति पर विजय पाने का एकमात्र साधन विरति धर्म की आराधना है।
विरति अर्थात् पापत्याग की प्रतिज्ञा। पाप-त्याग की
शान्त सुधारस विवेचन-२४९