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११. धर्म भावना-धर्म के स्वरूप का विचार करना ।
१२. बोधिदुर्लभ भावना-इस भवसागर में सम्यक्त्व की दुर्लभता का विचार करना।
(6) पाँच चारित्र १. सामायिक चारित्र-जिस चारित्र से आत्मा में ज्ञान, दर्शन और चारित्र गुरण प्रगट हों, आत्मा में समता-शान्ति पैदा हो, उसे सामायिक चारित्र कहते हैं। यह चारित्र सावद्यप्रवृत्ति के त्यागस्वरूप है। इसके दो भेद हैं--
(अ) इत्वर कथित सामायिक-जो सामायिक अल्प समय के लिए हो। जैसे-४८ मिनट की सामायिक ।
(प्रा) यावत्कथित सामायिक-जिस सामायिक की प्रतिज्ञा जीवन पर्यन्त हो उसे यावत्कथित सामायिक कहते हैं ।
२. छेदोपस्थापनीय-पूर्व चारित्र का छेद कर पुनः महाव्रतों के प्रारोपण को छेदोपस्थापनीय चारित्र कहते हैं।
३. परिहारविशुद्धि-गच्छ का त्याग कर यथाविधि विशिष्ट तप का आचरण करना, जिससे चारित्र की विशेष शुद्धि हो, उसे परिहारविशुद्धि चारित्र कहते हैं ।
४. सूक्ष्म संपराय-जहाँ लोभ का सूक्ष्म उदय हो उसे सूक्ष्म संपराय चारित्र कहते हैं ।
५. यथाख्यात चारित्र-जिनेश्वरदेव ने चारित्र का जो स्वरूप कहा है, अर्थात् राग-द्वेष की अवस्था से रहित चारित्र यथाख्यात चारित्र कहलाता है। इसके दो भेद हैं
शान्त सुधारस विवेचन-२४७