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संवर भावना
येन येन य इहालवरोधः ,
सम्भवेनियतमौपयिकेन । आद्रियस्व विनयोद्यतचेतास्तत्तदान्तरहशा परिभाव्य ॥ १७ ॥
(स्वागता) अर्थ-हे विनय ! जिन-जिन नियत उपायों के द्वारा आस्रवों का रोध हो सकता हो, अन्तई ष्टि से उनका विचार कर, उद्यत चित्त वाला बनकर उनका आदर कर (उनका उपयोग कर) ।। ६७ ।।
विवेचन संवर का स्वरूप
वाचकवर्य पूज्य उमास्वातिजी म. ने 'तत्त्वार्थ सूत्र' में कहा है-'प्रास्रवनिरोधः संवरः' प्रास्रव का निरोध करना संवर कहलाता है। प्रास्रव अर्थात् प्रात्मा में कर्म के आगमन के द्वार। उन द्वारों को जिससे रोका जाता है, उन्हें संवर कहते हैं।
नाव में छिद्र पड़ गये हों और उनमें से नाव में जल प्रवेश
शान्त सुधारस विवेचन-२३६