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एक छोटा सा बालक आग में हाथ डालने की चेष्टा तभी तक करता है, जब तक उसे यह पता नहीं चलता कि यह प्राग मुझे जलाने वाली है। आग की भयंकरता का अनुभव हो जाने के बाद अथवा उसे जान लेने के बाद वह बालक भी पुनः प्राग में हाथ डालने की चेष्टा नहीं करता है ।
परन्तु हम तो समझदार हैं, विवेकी हैं, अपने हिताहित को सोचने का हम में सामर्थ्य है; फिर भी मोह के वशीभूत होकर यह आत्मा शत्रुभूत आस्रव के संग में डूब जातो है। अज्ञानी है यह आत्मा। नादान है। इसीलिए बड़े ही प्रेम से सम्बोधित करते हुए उपाध्यायजी म. कहते हैं कि प्रास्रव के कड़वे फलों का तुमने बहुत बार अनुभव कर लिया है। अतः अब सावधान बन जाओ और उनके निरोध के लिए प्रयत्नशील बनो । __शत्रु से संरक्षण कर लेने के बाद मनुष्य कितना सुखी बनता है। बस, इन प्रास्रवों का त्याग कर तू बारम्बार शान्त-अमृतरस का पान कर, पान कर। इस अमृतरस के प्रास्वादन से तुझे परम आनन्द की अनुभूति होगी।
प्रास्रव से मुक्त होने के बाद प्रात्मा स्वभाव दशा में प्रा जाती है। सागर जब अपनी स्वभाविक दशा में होता है, तब कितना शान्त और गम्भीर होता है, किसी प्रकार का कोलाहल नहीं।
आत्मा की स्वभाव दशा में भी परम आनन्द का अनुभव होता है।
पूज्य विनय विजयजी म. यही शुभेच्छा और शुभकामना व्यक्त करते हैं कि हे आत्मन् ! तू बारबार इस शान्त रस का अमीपान कर। यही परमानन्द-मुक्ति का बीज है।
शान्त सुधारस विवेचन-२३५ ।