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सम्यग्दर्शन रत्न समान है । उसकी सुरक्षा सद्गुरु रूप पेटी और शास्त्रमति रूप चाबी से ही हो सकती है।
एक-एक नय का आश्रय करने वाले और अन्य नयों की उपेक्षा करने वाले अन्य सभी दर्शनकार मिथ्यादृष्टि ही कहलाते हैं । उनके आश्रय व संग से भी सम्यग्दर्शन गुण मलिन बनता है ।
सार यही है कि जो प्रात्माएँ सद्गुरु का त्याग कर कुगुरु का आश्रय करती हैं, वे मोक्ष-मार्ग से दूर हो जाती हैं और मोक्ष के नाम पर की जाने वाली क्रियाओं से भी वे मोक्ष से दूर ही जाती हैं।
कमान्य
अविरतचित्ता रे, विषय-वशीकृता ,
विषहन्ते विततानि । इह परलोके रे, कर्म-विपाकजान्य
विरल - दुःख - शतानि ॥११॥ अर्थ-विरति से रहित चित्त वाले, विषय के वशीभूत बने हुए प्राणी कर्म के विपाक से जन्य अति भयंकर सैकड़ों दु:खों को इस लोक और परलोक में निरन्तर सहन करते हैं ।। ६१ ॥
विवेचन अविरति प्रात्मा को भटकाती है
जैन शासन में 'विरति' धर्म का अत्यधिक महत्त्व है। पाप नहीं करते हुए भी जब तक पाप-त्याग की प्रतिज्ञा नहीं की जाती है, तब तक पाप का बन्ध सतत चालू रहता है ।
शान्त सुधारस विवेचन-२२४