________________
अत्यन्त ही उच्छृंखल वृत्ति वाले हैं । इनको आश्रय देने के साथ ही आत्मा के गुण - वैभव पर लूट चलाने वाले हैं । ये प्रास्रव तो वास्तव में लुटेरे हैं, जो श्रात्मा के गुरण- वैभव को लूटते हैं । इनको प्रश्रय देना अत्यन्त ही खतरनाक है । स्वाति नक्षत्र के जल की बूंद, जो सीप के संग से मोती बन सकती थी, बेचारी ! सर्प की संगति में आकर विष के रूप में बदल जाती है ।
बस, इसी प्रकार जो आत्मा इन आस्रवों के संग में फँस जाती है, उसकी भी भयंकर दुर्दशा होती है । उसका आत्मघन लूट लिया जाता है और वह दरिद्र कंगाल बन जाती है ।
श्रतः सज्जनों का यह कर्त्तव्य है कि वे इन शत्रुभूत प्रास्रवों को तनिक भी आश्रय न दें ।
कुगुरु नियुक्ता रे, कुमति - परिप्लुताः, शिवपुरपथमपहाय
प्रयतन्तेऽमी रे, क्रियया दुष्टया,
प्रत्युत
शिव - विरहाय ॥ ६० ॥
अर्थ - कुगुरु से प्रेरित अथवा कुमति से भरे हुए प्राणी मोक्षमार्ग का त्याग कर दुष्ट क्रिया के द्वारा उल्टे मोक्ष के विरह के लिए ही प्रयत्नशील होते हैं ।। ६० ।
विवेचन
कुगुरु का संग हितकर है
इस दुनिया में सम्यग्दृष्टि आत्माएँ अत्यल्प संख्या में हैं श्रीर शान्त सुधारस विवेचन- २२२