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मिथ्यादृष्टि आत्माएँ सर्वाधिक संख्या में हैं। इस प्रकार चारों ओर मिथ्यादष्टि प्रात्माओं का साम्राज्य है । सर्वत्र कुगुरु का साम्राज्य छाया हुआ है । कुगुरु सदैव धर्म के नाम पर अधर्म का ही पोषण करते हैं । मोक्ष के नाम पर अपना ही स्वार्थ सिद्ध करते हैं।
ऐसे कुगुरुषों के संग से सम्यग्दर्शन गुण भी दूषित हो जाता है और आत्मा में मिथ्यात्व दोष पुष्ट बनता है।
सद्गुरुषों के संग से दूर रहकर तथा शास्त्रमति का त्याग कर जो आत्माएँ स्वमति की कल्पनानुसार ही आराधना करना चाहती हैं, वे आत्माएँ पाराधना के नाम पर विराधना ही करती हैं ।
'मुण्डे-मुण्डे मतिभिन्ना' के नियमानुसार दुनिया में स्वैच्छिक मति के अनुसार चलने वाले बहुत हैं।
अदृष्ट पदार्थों के विषय में शास्त्रमति को त्याग कर जो आत्माएँ स्वमति से नई-नई कल्पनाएँ कर लेती हैं, वे आत्माएँ सन्मार्ग से च्युत होकर उन्मार्ग की ओर ही आगे बढ़ती हैं ।
सद्गुरु के आश्रय में ही सम्यग्दर्शन आदि गुणों का रक्षण सम्भव है । सद्गुरु का त्याग करने से सम्यग्दर्शन गुण टिक नहीं पाता है।
जमाली ने ज्योंही भगवान महावीर के आश्रय का त्याग किया और स्वमति कल्पना का आश्रय लिया, त्योंही मिथ्यात्व से वे ग्रसित बन गए। __ श्रीगुप्त प्राचार्य के शिष्य रोहगुप्त मुनि ने स्वमति कल्पना से विवाद किया, अतः वे सम्यग्दर्शन से च्युत हो गए।
शान्त सुधारस विवेचन-२२३