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देते हुए फरमा रहे हैं कि हे आत्मन् ! तू जागृत बन, प्रमाद को त्याग। तूने अब अपने शत्रुओं को पहचान लिया है। भय तभी तक है, जब तक शत्रु-मित्र का भेद ख्याल में नहीं पाता है। शत्रु-मित्र के भेद को समझ लेने के बाद तो उनके साथ कैसे व्यवहार करना, यह अपने हाथ में है। शत्रु की पहिचान के बाद तो उससे संरक्षण पाने की व्यवस्था की जा सकती है। अतः हे प्रात्मन् ! शास्त्र के श्रवण द्वारा तुझे शत्रु रूप आस्रव तत्त्व का बोध हो गया है।
हे मानव ! तेरा छोटा सा जीवन है, जिसमें अल्प तेरा यौवन है। गँवा मत दे यौवन को, मौज और शौक में, फिर, पश्चाताप से आँसू बहाएगा, जब दुःख के बादल तेरे सिर पर आ पड़ेंगे। चेत जा, समय थोड़ा है। भर दे जीवन को, त्याग और वैराग्य से। जिससे, प्राप्त होगी तुझको समता और शान्ति ।।
शान्त सुधारस विवेचन-२१९