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१३. प्रातित्यकी क्रिया-जीव-अजीव के निमित्त से जो रागद्वेष के परिणाम पैदा होते हैं, उसे प्रातित्यकी क्रिया कहते हैं।
१४. सामंतोपनिपातिकी क्रिया-चारों ओर से आने वाले लोगों को राग-द्वेष उत्पन्न करने वाली वस्तु बताकर स्वयं को राग-द्वेष होना । जैसे--बाजार में बेचने के लिए सजीव-गाय आदि अथवा निर्जीव-मोटर प्रादि लाकर रखना, जिसे देख कोई प्रशंसादि से रागादि करे और कोई क्षति निकाल कर द्वेष करे
और उन लोगों के राग-द्वेष से स्वयं को राग-द्वेष हो, उसे सामंतोपनिपातिकी क्रिया कहते हैं।।
१५. नैसष्टि की क्रिया-निसर्जन करना-फेंकना। कुए में से जल निकालना, धनुष्य में से बाण निकालना इत्यादि नैसृष्टिकी क्रिया कहलाती है।
१६. स्वहस्तिकी क्रिया-अपने हाथों से जीवों का घात करना, स्व-हस्तिकी क्रिया है ।
१७. आज्ञापनिकी क्रिया-जीवों को (प्रभु आज्ञा विरुद्ध) हुक्म करने को प्राज्ञापनिकी क्रिया कहलाती है।
१८. विदारणिकी क्रिया-जीवों का विदारण करना, विदारणिकी क्रिया कहलाती है।
१६. अनाभोगिकी क्रिया-चित्त के उपयोग रहित वस्तु को लेने-रखने से अनाभोगिकी क्रिया होती है ।
२०. अनवकांक्षाप्रत्ययिकी क्रिया-स्व - पर हित की आकांक्षा से रहित क्रिया करना। जैसे—पर स्त्री गमन, इत्यादि परलोक विरुद्ध आचरण करना।
शान्त सुधारस विवेचन-२१७