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किसी के विनाश आदि का विचार करना । मन में अशुभ विचार करने से अशुभ कर्मों का आस्रव होता है और मन को मैत्री आदि भावों से भावित करने पर शुभ कर्मों का आस्रव होता है ।
२. वचन योग - वाणी से किसी को बुरा-भला कहना, किसी को अपशब्द कहना । वचन को शुभाशुभ प्रवृत्ति से शुभाशुभ कर्मों का प्रस्रव होता है ।
३. काय योग -- काया से किसी को कष्ट देना । किसी का अहित करने से अशुभ कर्मों का प्रस्रव होता है । २५ प्रसत् क्रियाएँ-
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१ कायिकी क्रिया — कामवासना आदि दुष्ट भावों के लिए काया से प्रवृत्ति करना, कायिकी क्रिया कहलाती है। इसके दो भेद हैं
काया से
(i) सावद्य अनुपरांत क्रिया -- मिथ्यादृष्टि तथा प्रविरतसम्यगदृष्टि जीवों की काया से होने वाली चेष्टाओं को सावद्य अनुपरत क्रिया कहते हैं ।
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(ii) दुष्प्रयुक्त कायिकी क्रिया — प्रशुभयोग वाले जीवों की इष्ट वस्तु में राग व अनिष्ट वस्तु में द्वेष की क्रिया दुष्प्रयुक्त कायिकी क्रिया कहलाती है ।
२. प्राधिकरणकी क्रिया --हिंसा के साधनभूत तलवार, बंदूक आदि को तैयार करना, करवाना अथवा उपयोग करना, इत्यादि क्रिया ।
३. प्राद्वेषिकी — क्रोधादि से उत्पन्न द्वेष - पूर्वक की गई
शान्त सुधारस विवेचन- २१५