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४. मैथुन के त्याग की प्रतिज्ञा न होना तथा मन, वचन और काया से मैथुन की प्रवृत्ति में संलग्न होना 'अब्रह्म' नामक अव्रत है ।
५. परिग्रह के त्याग की प्रतिज्ञा न होना तथा मन, वचन और काया से परिग्रह में प्रवृत्त होना 'परिग्रह' नामक अव्रत है। ___ इन अव्रतों के सेवन से भी आत्मा में आस्रव के द्वार खुले रहते हैं और आत्मा कर्म का बंध करती है।
चार कषाय--
१. क्रोध--क्रोध अर्थात् गुस्सा करना, आवेश में आ जाना । किसी गलत बात को सहन न कर बुरा-भला कहना।
२. मान--प्राप्त अथवा अप्राप्त वस्तु का अभिमान करना, गर्व करना, झूठी बड़ाई हाँकना, किसी को नीचा दिखाना, इत्यादि ।
३. माया-धन आदि के लोभ में आकर किसी के साथ माया-कपट-प्रपंच आदि करना, मूल बात को छिपाकर अन्य बात कहना, इत्यादि ।
४. लोभ-अर्थात् प्राप्त सामग्री में असन्तोष। अधिकाधिक पाने की लालसा और उसके लिए तीव्र प्रयास ।
___ इन चारों कषायों के सेवन से आत्मा नवीन-नवीन कर्मों का उपार्जन करती है। तीन योग
१. मन योग-मन में किसी का अशुभ चिन्तन करना ।
शान्त सुधारस विवेचन-२१४