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प्रास्रव के कुल ४२ भेद हैं । इनमें से किसी एक भी प्रवृत्ति का प्राश्रय करते ही जीवात्मा में कर्मों का प्रागमन प्रारम्भ हो जाता है । फिर ज्योंही ये कर्म उदय में आते हैं तब आत्मा आकुलव्याकुल बन जाती है और कर्म के उदय के फलस्वरूप ही आत्मा को जन्म की पीड़ाएँ, मृत्यु की पीड़ाएँ, रोग-शोक-भय आदि के दुःख भोगने पड़ते हैं।
यावत् किञ्चिदिवानुभूय तरसा कह निर्जीर्यते , तावच्चास्रवशत्रवोऽनुसमयं सिञ्चन्ति भूयोऽपि तत् । हा कष्टं कथमास्रवप्रतिभटाः शक्या निरोर्बु मया , संसारादतिभीषणान्मम हहा मुक्तिः कथं भाविनी ॥८॥
(शार्दूलविक्रीडितम्) अर्थ-जब तक कुछ कर्मों को भोगकर जल्दी ही उनकी निर्जरा कर देते हैं, तब तक तो आस्रव रूप शत्रु प्रति-समय अन्य कर्मों को लाकर पुनः सिंचन कर देता है। हा! खेद है मैं उन आस्रव शत्रुओं का निरोध कैसे करूँ ? इस भीषण संसार से मैं कैसे मुक्त बनू ? ।। ८५ ।।
. विवेचन प्रास्त्रवों के निरोध में कठिनाई
अपनी आत्मा प्रति-समय पाठों कर्मों की कुछ अंश में निर्जरा करती है । अज्ञान आदि के द्वारा प्रात्मा उदयावलिका में पाए हुए ज्ञानावरणीय कर्मों का क्षय करती है। अंधत्व आदि के द्वारा दर्शनावरणीय कर्म का कुछ अंश में क्षय करती है । सुख
शान्त सुधारस विवेचन-२०६