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आस्रव भावना यथा सर्वतो निर्भरैरापतभिः
प्रपूर्यत सद्यः पयोभिस्तटाकः । तथैवास्रवैः कर्मभिः सम्भृतोऽङ्गी, भवेद व्याकुलश्चञ्चलः पङ्किलश्च ॥ ८४ ॥
(भुजंगप्रयातम्) अथ--जिस प्रकार चारों ओर से आते हुए झरनों के जल से तालाब शीघ्र ही भर जाता है, उसी प्रकार यह प्राणी भी प्रास्रवद्वारों से आने वाले कर्मों से भर जाता है और फिर आकुलव्याकुल, चंचल और मलिन बनता है ।। ८४ ।।
विवेचन प्रास्रवद्वारों से आत्मा में कर्म का आगमन
इस विस्तृत चौदह राजलोक रूप संसार में सर्वत्र कार्मरण वर्गणाएँ उपलब्ध हैं । ये कामण वर्गणाएँ पुद्गल स्वरूप हैं। जब आत्मा राग और द्वेष के अधीन होकर कर्म-पुद्गलों को आमन्त्रण देती है, तब ये कर्म-वर्गणाएँ आत्मा के पास पहुँच जाती हैं और क्षीर-नीर की भाँति आत्मा के साथ घुल-मिल जाती हैं और आत्मा कर्म के अधीन बन जाती है ।
शान्त सुधारस विवेचन-२०४