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तीर्थकरत्व (पाहत्य) का ही है और उस तीर्थकरत्व की प्राप्ति भी मानव-शरीर से ही होती है।
अतः हे पात्मन् ! मानव-देह अत्यन्त बीभत्स होते हुए भी मुक्ति का साधन होने से अत्यन्त ही दुर्लभ है। इस मानवदेह से देवों को दुर्लभ ऐसे विरतिधर्म की साधना हो सकती है और इस विरति धर्म की साधना से मानव अपने समस्त बन्धनों से मुक्त बन सकता है। ___ अतः हे आत्मन् ! महापवित्र आगम रूप जो जलाशय है, उस जलाशय में से शांत सुधारस का तू पान कर। इस शान्त सुधारस का पान करने से अनादि से अतृप्त तेरी तृषा शान्त हो जाएगी।
जिस नाव से समुद्र तरा जाय, वही वास्तव में नाव है । समुद्र में ही डुबो दे, वह वास्तव में नाव ही नहीं है । इसी प्रकार उसी का मानव-जीवन (मानव-देह की प्राप्ति) सार्थक है, जो इस देह को प्राप्त कर इसे मोक्षसाधक धर्म का साधन बना देता है । यदि इस मानव-देह से मोक्ष की साधना न की जाय, तो यह मानव-देह, आत्मा का भयंकर अध:पतन करा सकता है। जो अपने देह को मोक्ष का साधक बना देता है, उसका वह देह भी पवित्र बन जाता है।
अतः हे चेतन ! ऐसा निपुण चिन्तन कर कि जिसके द्वारा तू अपनी आत्मा को उन्नति के शिखर पर पहुँचा सके ।
हे प्रात्मन् ! जरा विचार कर, जिनेश्वर का आगम तो अमृत-रस का जलाशय है, उस जलाशय में शान्त रस का पान कर अपनी आत्मा को तृप्त कर ।
शान्त सुधारस विवेचन-२०३