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सारांश रूप में जिनेश्वर द्वारा कथित वचन में सन्देह करना। इस मिथ्यात्व के ५ भेद हैं
(१) प्राभिग्रहिक मिथ्यात्व-मिथ्या धर्म पर दुराग्रह करना, प्रात्मा को एकान्त नित्य अथवा अनित्यादि स्वीकार करना, इत्यादि।
(२) अनभिग्राहिक मिथ्यात्व-सभी धर्मों को समान समझना । तत्त्व-अतत्त्व के सन्दर्भ में विवेक का अभाव होना।
(३) अभिनिवेशिक मिथ्यात्व-सर्वज्ञ के बहुत से वचनों पर विश्वास करना, किन्तु १-२ बात पर विश्वास नहीं करना और अपनी बात का दुराग्रह करना।
(४) सांशयिक मिथ्यात्व-सर्वज्ञ के वचन में शंकाशील बनना अर्थात् जिनेश्वर ने जिस वस्तु का निरूपण किया है, उसमें शंकाएँ पैदा करना।
(५) अनाभोगिक मिथ्यात्व-तत्त्व-अतत्त्व के अध्यवसाय का सर्वथा अभाव । एकेन्द्रिय से असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों में मन के अभाव के कारण 'तत्त्व क्या है ?' इस प्रकार का विचार ही नहीं होता है।
मिथ्यात्व की उपस्थिति में पूर्व का ज्ञान भी अज्ञान और चारित्र भी कायकष्ट कहलाता है। मिथ्यादृष्टि प्रात्मा करोड़ों वर्षों के तप आदि से जितने कर्मों की निर्जरा करती है, उससे भी अधिक कर्मों की निर्जरा सम्यग्दृष्टि आत्मा एक नवकारसी के पच्चक्खारण से कर लेती है।
शान्त-१४
शान्त सुधारस विवेचन-२०६