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अर्थ-महापुरुषों ने मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग को चार प्रास्रव कहा है । इन प्रास्रवों के द्वारा प्रति समय कर्मों को बांधते हुए जीव भ्रमवश संसार में भटकते हैं ।। ८६ ।।
विवेचन कर्म-बंध के चार हेतु
प्रस्तुत गाथा में कर्मबंध के मुख्य चार हेतु बताए जा रहे हैं—(१) मिथ्यात्व (२) अविरति (३) कषाय और (४) योग ।
इन चारों के सेवन से आत्मा प्रतिसमय कर्म का बंध करती है । अपनी आत्मा के असंख्य प्रात्मप्रदेश हैं और प्रत्येक प्रात्मप्रदेश पर अनन्त-अनन्त कार्मण-वर्गणाएँ लगी हुई हैं और प्रत्येक कर्म में प्रात्मा को भयकर सजा देने की ताकत रही हुई है।
(१) मिथ्यात्व-मिथ्यात्व अर्थात् विपरीत श्रद्धा अथवा दृष्टि । तत्त्व में अतत्त्व-बुद्धि और प्रतत्त्व में तत्त्व-बुद्धि मिथ्यात्व का रूप है । वीतराग को देव न मानना और रागादि से कलुषित आत्माओं को देव मानना।
___जो निग्रंथ गुरु हैं, उन्हें गुरु नहीं मानना और जो उन्मार्ग के उपदेशक हैं, उन्हें गुरु के रूप में स्वीकार करना।
जिनेश्वर देव के द्वारा कथित दयामय धर्म को अस्वीकार करना और अज्ञानी द्वारा निर्दिष्ट हिंसामय प्रवृत्ति को धर्म मानना ।
शान्त सुधारस विवेचन-२०८