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सर्वविरति के स्वीकार से एक भिखारी भी त्रिलोक-पूज्य बन जाता है।
पूर्व भव में एक दिन की दीक्षा के पालन से भिखारी का जीव संप्रति महाराजा बन गया था।
(३) कषाय-कष अर्थात् संसार । प्राय अर्थात् वृद्धि । जिसके सेवन से आत्मा के संसार की अभिवृद्धि हो, उसे कषाय कहते हैं। कषाय के सेवन से प्रात्मा में कर्मों का आगमन होता है।
अल्पकालीन कषाय का भी परिणाम अत्यन्त भयंकर होता है। क्रोध कषाय के प्रावेश के कारण कंडरिक को ७वीं नरकभूमि में जाना पड़ा। लोभ के वश पड़कर मम्मरण सेठ मरकर ७वीं नरक भूमि में गया।
कषाय के मुख्य चार भेद हैं- क्रोध, मान, माया और लोभ।
इनके सेवन से आत्मा कर्मों का बंध करती है।
(४) योग-- मन, वचन और काया को योग कहते हैं। मन, वचन और काया की प्रवृत्ति से प्रात्मा कर्म का बंध करती है । शुभ प्रवृत्ति से शुभ कर्म (पुण्य) का बंध और अशुभ प्रवृत्ति से अशुभ कर्म (पाप) का बंध होता है ।
इस प्रकार मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योग की प्रवृत्ति से प्रात्मा में कर्मों का आगमन होता है और आत्मा इस भीषण संसार में भटकती है।
शान्त सुधारस विवेचन-२११