________________
आत्मा में कर्म के आगमन के द्वारों को प्रास्रव कहते हैं। इसे अनेक रूपकों के द्वारा समझ सकते हैं ।
(१) एक विशाल तालाब है। उसकी चारों दिशाओं में जल के आगमन के मार्ग बने हुए हैं और सभी द्वार खुले हैं । अचानक जोरों की वर्षा होती है और पानी अपने स्वभाव के अनुसार निम्न भाग की ओर आगे बढ़ता है, अतः थोड़े ही समय में चारों ओर से उस तालाब में पानी आने लगता है और कुछ ही घंटों में वह तालाब भर जाता है । बस, इसी प्रकार से जीवात्मा भी एक तालाब है। इसमें कर्म-परमाणुओं के आगमन के लिए प्रास्रव के द्वार बने हुए हैं, अतः जब जीवात्मा राग-द्वेष के अधीन बनता है, तब चारों ओर से प्रात्मा में कर्म-परमाणुओं का प्रागमन प्रारम्भ हो जाता है और आत्मा कर्म से युक्त हो जाती है।
(२) यह संसार सागर तुल्य है, इसमें जीवात्मा रूपी नाव है। जब नाव में छिद्र पड़ जाते हैं तब चारों ओर से पानी आने लगता है, इसी प्रकार जब जीवात्मा राग-द्वेष के परिणाम द्वारा आस्रव के द्वार खोल देता है तब उसमें चारों ओर से कर्मपरमाणुत्रों का आगमन प्रारम्भ हो जाता है।
राग और द्वेष के परिणाम द्वारा जब जीवात्मा अपने शत्रुभूत कर्मों को स्वगृह में प्रवेश करा देता है, तब उसके फलस्वरूप उसे नाना प्रकार की यातनाएँ सहन करनी पड़ती हैं।
आत्मा के संसार-परिभ्रमण का मूल कर्म है और कर्म का मूल प्रास्रवद्वार हैं।
शान्त सुधारस विवेचन-२०५