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मल से सजित यह देह भी मल से ही भरा हुआ है। इस देह में मल है, मूत्र है, हाड़ है, मांस है, श्लेष्मा है, कफ है, वात है, पित्त है, इत्यादि मल से ही यह शरीर भरा हुआ है ।
कितने ही सुन्दर व कीमती वस्त्रों से इस शरीर को ढका जाय, इसे कितने ही कीमती आभूषणों से सजाया जाय, फिर भी इस शरीर में से गन्दगी का बहना बन्द नहीं होता है। इस शरीर में से समय-समय पर बीभत्स पदार्थों का निर्गमन चालू ही रहता है।
जरा सोचें ! इस प्रकार मल से प्रावृत इस शरीर के साथ कौन बुद्धिमान् पुरुष प्रीति धारण करेगा? भजति सचन्द्रं शुचिताम्बूलं ,
कर्तुं मुखमारुतमनुकूलम् । तिष्ठति सुरभि कियन्तं कालं,
मुखमसुगन्धि जुगुप्सितलालम् ॥भावय रे.."॥७॥
अर्थ-मुख में से अनुकूल पवन निकालने के लिए मनुष्य कर्पूरादि सुगन्धित पदार्थों से युक्त पान (तांबूल) खाता है । किन्तु मुख स्वयं ही घृरिणत लार से भरा हुआ है, उसकी यह सुगन्ध कब तक रहती है ? ॥७८ ।।
विवेचन शरीर में सुगन्ध रह नहीं पाती है।
गन्दगी से भरपूर इस शरीर को सुगन्धित व आकर्षक बनाने के लिए मनुष्य कितनी मेहनत करता है ?
शान्त सुधारस विवेचन-१६५