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इस प्रकार गन्दगी से भरपूर इस शरीर में पवित्रता की कल्पना एकमात्र कुतर्क ही है ।
अशितमुपस्कर-संस्कृतमन्न
जगति जुगुप्सां जनयति हन्नम् । पुंसवनं धेनवमपि लीढं ,
भवति विहितमति जनमीढम् ॥भावय रे...॥१॥
अर्थ-देह मसाले आदि से संस्कारित अन्न को खाकर , दुनिया में केवल घृणा पैदा करता है। गाय का मधुर दूध भी मूत्र रूप में बदलकर निन्दा का पात्र बनता है ।। ८१॥
- विवेचन शरीर-संसर्ग से भोजन की दुर्दशा
इस शरीर की पुष्टता के लिए व्यक्ति नाना प्रकार के भोजन करता है। रसना की तृप्ति के लिए व्यक्ति अनेक प्रकार की भोजन-सामग्रियाँ बनाता है। अनेक प्रकार के मिष्टान्न, अनेक प्रकार के नमकीन, अनेक प्रकार की साग-सब्जियाँ प्रादि से भरपूर भोजन करता है। किन्तु गले से नीचे उतारने के बाद उस भोजन की क्या हालत होती है ? वह सुगन्धित भोजन दुर्गन्ध में बदल जाता है। कुछ ही घंटों के बाद ताजा भोजन विष्टा में बदल जाता है। 'कोकाकोला' आदि स्वादिष्ट पेय भी कुछ समय बाद मूत्र में बदल जाते हैं और चारों ओर गन्दगी ही फैलाते हैं। इस प्रकार यह मानव-देह ही विश्व की समस्त गन्दगी का सर्जक है ।
शान्त सुधारस विवेचन-१९६