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जो स्वयं अशुचि स्वरूप है, उसकी शुद्धि कैसे हो सकती है ? अतः बाह्य शौचधर्म की बात करना केवल मूर्खता ही होगी ।
इत्यवेत्य शुचिवादमतथ्यं, पथ्यमेव जगदेकपवित्रं । शोधनं सकलदोषमलानां धर्ममेव हृदये निदधीथाः ॥ ७५ ॥ ( स्वागता)
अर्थ - इस प्रकार 'शुचिवाद' को प्रतथ्य समझकर सकल दोषों की शुद्धि करने वाले जगत् में एकमात्र पवित्र धर्म को हृदय में धारण करो ।। ७५ ।।
विवेचन
शुद्ध धर्म का सेवन ही श्रेयस्कर है
इस प्रकार इस देह की शौचवाद की अवास्तविकता को समझकर एकमात्र धर्म का आश्रय करना ही श्रेयस्कर है । श्रात्मा के दोष स्वरूप मैल को दूर करने के लिए धर्म साबुन के समान है । सम्पूर्ण जगत् में इस धर्म के समान कोई पवित्र वस्तु नहीं है । यही पथ्य है और यही तथ्य है ।
रोग के निवारण के लिए पथ्य का सेवन और अपथ्य का त्याग अनिवार्य है । दोनों की उपेक्षा से रोग का निवारण शक्य नहीं है । अपथ्य का त्याग किया जाय और पथ्य का सेवन न किया जाय अथवा पथ्य का त्याग किया जाय और अपथ्य का
त्याग न किया जाय तो रोग का निवारण शक्य नहीं है ।
शान्त सुधारस विवेचन- १६०