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विवेचन
अनमोल है जिन-वाणी ! !
संसार के इस भीषरण स्वरूप को जानकर अब क्या करना चाहिये ? इसका प्रत्युत्तर पूज्य उपाध्यायजी म. अन्तिम गाथा में दे रहे हैं, वे अपनी आत्मा को ही सम्बोधित करते हुए कहते हैं कि हे विनय ! यदि तू परम शान्ति और परम आनन्द पाना चाहता है तो जिनवचनों को अपने हृदय में धारण कर । यही जिनवचन समस्त शान्ति का स्रोत हैं । यही परमानन्द की गंगा का उद्गम स्थल हैं । जिनवचन में ही संसार के समस्त भयों को विच्छेद करने की ताकत रही हुई है ।
भयंकर खूनी दृढ़प्रहारी को साधु बनाने वाले जिन-वचन ही थे ।
भयंकर हत्यारे अर्जुनमाली को शान्तात्मा बनाने वाले भी जिन - वचन ही थे ।
भयंकर पापात्मा चिलातिपुत्र को धर्मात्मा बनाने वाले भी ही जिन वचन थे ।
अत्यन्त क्रोधी चण्डकौशिक नाग को क्षमाशील बनाने वाले ये ही जिन-वचन थे ।
जिसने जिन वचन का आदर किया.... उनका बहुमान किया, उसके लिए त्रिभुवन की लक्ष्मी हथेली पर है। यहाँ तक कि मोक्ष भी उसके लिए हाथ बेंत में है ।
शान्त सुधारस विवेचन- ११७