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जैसे मार्ग में किसी पथिक का चेहरा ही देखते हैं तो किसी से दो मिनट बात भी करते हैं और किसी के साथ नाश्ता भी कर लेते हैं।
बस, इस संसार में भी अनेक का हम मात्र चेहरा ही देख पाते हैं और अनेक के साथ चार दिन-बीस दिन रहते भी हैं, परन्तु आखिर तो हम पथिक हैं। विश्रामगृह में कब तक ठहर सकते हैं। कुछ समय बाद तो उसे छोड़ना ही पड़ता है। बस, इसी प्रकार से यह जीवन भी विश्रामगृह की भाँति है । यहाँ स्वजन कूटम्ब आदि का जो मेला है, वे सब अलग-अलग मार्ग के पथिक हैं। अतः अल्प समय के लिए ही सबका मिलन होता है, फिर तो सब अपनी-अपनी दिशा में आगे बढ़ेंगे ही।
स्व-स्व कर्म के अनुसार स्वजन-कुटुम्ब का यह पंखीमेला है। यह पंखोमेला तो प्रातःकाल होते ही बिखर जाने वाला है।
अतः हे प्रात्मन् ! तू व्यर्थ ही स्वजन-कुटुम्ब में राग क्यों कर रहा है ? उनके राग से तुझे कुछ भी फायदा होने वाला नहीं है। व्यर्थ में तू राग कर अपनी आत्मा को ही बन्धनग्रस्त बना रहा है।
ममता के इस बन्धन को तू छोड़ दे और मुक्त पंखी की भाँति स्वतंत्र बन जा।
प्रणयविहीने दधदभिष्वङ्ग, सहते
बहुसन्तापम् । त्वयि निःप्रणये पुदगलनिचये ,
वहसि मुधा ममतातापम् ॥ विनय० ६८ ॥
शान्त सुधारस विवेचन-१७१