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अशुचि भावना
सच्छिद्रो मदिराघटः परिगलत्तल्लेशसंगाशुचिः, शुच्यामृद्य मृदा बहिः स बहुशो, धौतोऽपि गङ्गोदकः । नाधत्ते शुचितां यथा तनुभृतां कायो निकायो महाबीभत्सास्थिपुरीषमूत्ररजसां नायं तथा शुद्धयति ॥७१॥
(शार्दूलविक्रीडितम्)
अर्थ-छोटे-छोटे छिद्रों से युक्त शराब के घड़े में से धीरेधीरे शराब की बूदें बाहर निकल कर घड़े के बाह्य भाग को भी अपवित्र कर देती हैं। उस बाह्य भाग में सुन्दर मिट्टी का मर्दन किया जाय अथवा गंगा के पवित्र जल से उसे बारम्बार धोया जाय, फिर भी वह पवित्र नहीं बनता है, उसी प्रकार अति बीभत्स हड्डी, मल-मूत्र तथा रक्त के ढेर समान यह मानव देह भी मात्र स्नानादि से पवित्र नहीं बनता है ।। ७१ ।।
विवेचन अशुचि से भरा शरीर
दुनिया में एक शौचवादी धर्म है जो मात्र शरीर-शुद्धि पर शान्त-१२ शान्त सुधारस विवेचन-१७७