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"क्या गन्ने के फल नहीं खाते हो?"
'नहीं। गन्ने के फल कहाँ होते हैं ?' उस यात्री ने कहा।
शौचवादी ब्राह्मण ने कहा-'चलो, मैं दिखाता हूँ।' और वह उसे शुष्क दस्त दिखाने लगा। यह देखते ही उस यात्री को हँसी आ गई। उसने कहा-"पागल हो क्या ? ये कोई गन्ने के फल हैं ? यह तो मेरा मल है।" .
सुनते ही शौचवादी ब्राह्मण के बेहाल हो गये-"अहो ! अपवित्रता से बचने के लिए तो घर छोड़कर यहाँ आया और यहाँ आकर यह पाशविक चेष्टा कर दी।"
वह ब्राह्मण अपने आपको धिक्कारने लगा।
जैनशासन में भी शौचधर्म बतलाया गया है, परन्तु उसमें अभ्यन्तर-शौच की प्रधानता है, बाह्य शौच गौण है। मात्र यदि बाह्य शौच-शारीरिक शुद्धि से ही मुक्ति हो जाती तो सदा जल में वास करने वाले मत्स्य कभी के मुक्त बन जाते । परन्तु मात्र देह-शुद्धि से कभी मुक्ति नहीं होती है, मुक्ति के लिए तो मनःशुद्धि की आवश्यकता रहती है। किसी कवि ने ठीक ही कहा है
हंस का रंग देखो तो 'व्हाइट' है । बगुले का रंग भी तो 'व्हाइट' है। परन्तु दोनों में अन्तर देखो, तो 'डे' एण्ड 'नाइट' है।
शान्त सुधारस विवेचन-१८०