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पर-भाव रमरणता के त्यागस्वरूप आत्म-परिणति के कारण उन्हें आदर्श भवन ( काँच के भवन) में ही केवलज्ञान हो गया और जो ममता से ग्रस्त रहे, उनके पास फूटी कौड़ी न होने पर भी वे सातवें नरक में चले गए । आत्मा के संसार और मोक्ष का एकमात्र आधार उसकी ममता और निर्ममता ही है ।
वास्तव में, ममत्व ही बन्धन है । ममत्व के बंधन के कारण ही आत्मा संसार में भटकी है और उससे मुक्त होने पर सर्वथा मुक्त बनी है ।
अतः हे आत्मन् ! तू बाह्य पदार्थों की इस ममता का त्याग कर दे । तू निस्संग बन जा । तू निर्ग्रन्थ बन जा । तू विरक्त बन जा और इसके साथ ही प्रत्यन्त निर्मल और मनोहर अनुभव सुख का रसास्वादन कर ।
परमात्मा ने आत्मा के आनन्द स्वरूप का जो वर्णन किया है, उसके श्रवरण में भी प्रानन्द का अनुभव होता है, उसके वर्णन में आनन्द है । जब उसका वर्णन भी आनन्द देने वाला है तो उसके स्वानुभव में कितना आनन्द होगा ? यह तो अनुभवी व्यक्ति ही जान सकते हैं ।
बाह्य भाव से प्रलिप्त बनकर जब आत्मा के शुद्ध स्वरूप का चिन्तन किया जाता है, तब आत्मा में से आनन्द के स्रोत का बहना प्रारम्भ हो जाता है । उसके रसास्वादन के बाद सांसारिक आनन्द तृरण समान प्रतीत होने लगते हैं ।
पथि पथि विविधपथैः पथिकैः सह,
कुरुते कः प्रतिबन्धम् ? स्वजनैः सह,
किं कुरुषे ममताबन्धम् ? || विनय० ६७ ॥
शान्त सुधारस विवेचन- १६९
निज- निजकर्मवशः