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परन्तु जरा विचार कर, तू तो आत्मा है, ज्ञान-दर्शन और चारित्र तेरा स्वभाव है और तू भिन्न स्वभाव वाले पुद्गल से प्रेम करता है। पुद्गल का स्वभाव तो सड़न-गलन का है।
तू अविनश्वर है, वह नश्वर है। तू शाश्वत है, वह क्षणिक है। तू सुख का महासागर है और उसे सुख से लेना-देना नहीं है। तू चेतन है और वह अचेतन है ।
अतः जो तेरा नहीं है और तुझसे सर्वथा भिन्न है, उसके (पुद्गल के) साथ व्यर्थ ही ममता कर अपने आपको परेशान करता है। त्यज संयोगं नियत - वियोगं ,
कुरु निर्मल - मवधानम् । नहि विदधानः कथमपि तृप्यसि ,
मृगतृष्णाघनरसपानम् ॥ विनय० ६६ ॥ अर्थ-जिनका अन्त में अवश्य वियोग होने वाला है उन संयोगों का तुम त्याग कर दो और निर्मल भाव करो। मृग-तृष्णा के जल का कितना ही पान किया जाय, उससे कभी तृप्ति होने वाली नहीं है ।। ६६ ।।
विवेचन संयोग में राग दुःख का कारण है
महापुरुषों के इस कथन को याद करो'संजोगमूला जीवेण, पत्ता दुःखपरम्परा।'
शान्त सुधारस विवेचन-१७३