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पर-पदार्थों में रही हुई आत्मवत् बुद्धि को दूर कर स्वभाव में लीन बनना यही परमानन्द की प्राप्ति का मार्ग है और उसी के लिए हमारा प्रयास होना चाहिये ।
कृतिनां दयितेति चिन्तनं, परदारेषु यथा विपत्तये । विविधातिभयावहं तया, परभावेषु ममत्वभावनम् ॥४७॥
अर्थ-जिस प्रकार परस्त्री में स्वस्त्री की कल्पना बुद्धिमान् पुरुष के लिए आपत्ति का कारण बनती है, उसी प्रकार अन्य वस्तु में अपनेपन की भावना (ममत्वबुद्धि) विविध पीड़ाओं को लाने वाली ही होती है ।। ४७ ।।
विवेचन पर-भाव में रमणता भयंकर है
परस्त्री की ओर जो नजर करता है, उसके साथ संग करने के लिए प्रयत्न करता है, उसकी हालत खराब ही होती है । 'दशवकालिक' में ठीक ही कहा है
जह तं काहिसि भावं, जा जा दिच्छसि नारीयो। वाया विध्धुव्व हडो, अद्विअप्पा भविस्ससि ॥
सती राजीमती रथनेमि को कहती है कि-"हे रथनेमि ! यदि तुम इस प्रकार राग भाव का सेवन करते रहोगे तो जब-जब स्त्री को देखोगे, तब-तब पवन से स्फुरित होने वाली हड नामक वनस्पति की तरह तुम अस्थिर (आत्मा वाले) बन जामोगे।"
अर्थात् जिसका मन परस्त्री में रंजित बना है, वह अपनी
शान्त सुधारस विवेचन-१२५